क्षितिज खो गया

क्षितिज
छिप गया है
ऊँचे मकानों के पीछे कहीं,
कभी निकला था
ढूँढने एक नई दुनिया
उसके पार-
अब बस देखता रहता हूँ
खिड़की से
इस मकान की,
मकान-
जिसकी सफ़ेद दीवारें
अजनबी मानती हैं मुझे
पर फिर भी
जिसे घर कहता हूँ मैं.

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अब तो कबीर भी जित देखूं तित लाल कहने से रहा :)

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