द्वन्द्वातीत

पंक्तियाँ ख़तम होते ही
बदल गए उसके भाव,
-उसका चेहरा, उसकी आँखें,
अटकी हुई साँस-
सब पूछ रहे थे
सही तो किया न?
यही था न मेरा किरदार?
...

दूरदर्शन चलता रहा
और मैं सोफे पर ही सो गया.
हर शैली में
तुमसे प्रेम कर भी
तृप्त नहीं हुआ मन.
फ़र्ज़ अदाई-भर कर रही थीं तुम.

तुम्हारी नाभि बड़ी करी
पेचकश से,
तब कुछ संतोष हुआ
प्रेम कर.

नहा-धोकर आया
तड़पते हुए तुम्हें देखा न गया.
गीला तौलिया तुम्हारे गले पर लपेटा
और तुम्हारी आखरी साँस के साथ
मेरी नींद भी टूट गई.
...

अभय घूम रहा था
उत्तराधुनिक दिल्ली में,
जब बाहर निकला
इतनी गाढ़ी बह रही थी हवा
एलिस होती तो पी ही लेती.
कभी बहुत बड़ा था
कचरे का यह ढेर,
अब बढ़ा रहा है अपनी सीमाएं
किसी पुराने राज्य की तरह.
तीन दिन तो लग ही जाते है
लाश के मिलने में,
गंध आती भी है तो
कुत्ते की होगी सोच
कोई देखता नहीं.
...

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