विरूपण
प्रेम, हर दोपहर अब अकेले नहीं करती थी भोजन, ना ही छुट्टियाँ अब अकेले बितती थीं- कभी माया मेमसाब देखते, तो कभी हरिया हरक्यूलीज़ से बातें करते. पास बैठते, और तुम्हारी पूंछ घेर लेती मुझे. प्रेम, साथ लेटते- जकड़ लेती तुम्हारी पूंछ, उँगलियाँ बालों में, गर्दन पर और नीचे सहलाती पूंछ. पर, अपने कथित विरूपण से रूप की ओर बढ़ चली तुम- भय दूर कर, हिस्सा बनने- जुड़ने- सब से बड़े समुदाय से, भीड़ से. बस थोड़ी-सी चीर-फाड़. फिर भी- आज भी अकेली हो कटी हुई-सी. और वह भी नहीं हो प्रेम था जिससे.