ठहर

आज भी भरा हैं यह कमरा
धूल और सूखी स्याही की गंध से,
वे टुकड़े
आज भी छुपा रखें हैं
एक अँधेरे कोने में,
अनजाने ही कभी
सामने पड़ जाते हैं तो
चिपचिपी हो उठती है आँख
गर्माहट भरी एक बूँद से.

माँ,
एक बार फिर थाम ले ना
वह फ्रेम.

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यादें इसी का तो नाम है!!

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