उठा खिड़की से बाहर देखा बारिश रुक चुकी थी, हाथ लगा कर देखा आँख सूज चुकी थी काली भी होगी ही. जाने किसका कमरा है यह खिड़की से बाहर कूदा ऊंची सड़क के इस ओर जगह जगह पानी भर गया था, मटमैला पानी, एक गड्ढे के पास घुटनों पर बैठ आँख देखनी चाही पर अँधेरा कुछ ज्यादा था कुछ दिखा नहीं, छुआ, लगा कुछ दिन तो काली रहेगी ही. कुछ दूर एक पेड़ दिखा, कोई फल हो शायद, था भी, उछल कर तोडना चाहा पर दूर था. शायद कमरे में कोई मेज़ हो, कुछ न था बस दीवार से निकली ईटों का ढेर था, शायद काफी हों- न थीं. वहीँ बैठ गया. फिर बारिश होने लगी. कमरे की ओर देखा पर उठा नहीं- कुछ देर में ही शर्ट भारी हो गई थी पानी सोख-सोख कर. कमरे में पहुँचने तक बारिश रुक गई थी. सो गया. काँप रहा था बुखार से, फटे होठ नमकीन थे, सात कदम दूर माँ खड़ी थीं, उनकी ओर बढ़ा पर फिर भी सात कदम दूर खड़ी थीं. होठ अब भी नमकीन थे पर फटी त्वचा दांतों में आ नहीं रही थी. सोचा दूर जाऊँगा तो भाग कर पास आएंगी, पर फिर भी सात कदम दूर थीं. अचानक अहसास हुआ कह रही थीं वे मुझसे - "