भूखों मरे

2008 में, कश्मीर के चिड़ियाघर में शेरों को खाना मिल नहीं रहा था, आज कानपूर में भी नहीं मिल रहा. यह कविता-सी तब लिखी थी.

कल
अगर भूखों मरे हम
तो पहले मरनेवाले को
बाकी खा लें तो अच्छा हो!

ज्यादा सोचना मत,
वरना शव भक्षी मकोड़े खा जायेंगे!

वैसे मेरे कूल्हे का
कटलेट अच्छा बनेगा,
लाल, टपकता तेल,
प्लेट पर सजा.
पर काटते वक्त
ज्यादा खून बहे,
तो जानलेना-
अभी जिंदा हूँ!
बेहोश...

याद रखना
कोई आने वाला नहीं
एक चाबी लिए
देने तुम्हें
जिससे सब खुल जाए!
कोई हल नहीं.
कल तुम कितना चिल्लाए थे,
किसी ने सुना था क्या?
आज भी न सुनेगा?
पर कल तो आयेगा!

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