सोफ़िया - 22

मुँह फेरे बैठी है वह,
उतारना नहीं चाहती खुद में
मेरी ख़राशों को और,
एक नई सूरत अब
देना चाहती है मुझे
वह कविता जो तुम-सी लगती है.

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