आविर्भाव

अँधेरा झाँक रहा था
खिड़की से भीतर
यों तो चाँद लगभग पूरा ही होगा
पर बादलों में दबा पड़ा था आज.

मैं खिड़की पर सिर टिकाए
कुछ सोच रहा था
के छत के कोनों में
कुछ हलचल सी हुई,
पलस्तर यों खिसकने लगा
जैसे प्लास्टिक सिकुड़ता है आग देखकर,
मैंने हाथ फैलाकर झड़ते पलस्तर का एक टुकड़ा थाम लिया.
कोई आकृति-सी उभरने लगी
फिर रंग उभरे, आकृति कि ओर से ध्यान खींचते.
मैंने उठकर बत्ती बुझा दी,
नीले रंग कि टेढ़ी मेढ़ी लाईनों के बीच
सुनहरी-सिन्दूरी छटा खिलने लगी,
और देखते ही देखते छत फट पड़ी.

कोई उतर रहा था भीतर
पंखों वाला
कोई आवाज़ सुनाई नहीं देती – कोई भी नहीं,
टाल रहा था मैं उसे
मेरी पहचान का जो नहीं है वह
पर आज तो वह मुझे कुछ कह कर ही रहेगा.

छत फिर बंद हो गई,
मैंने फिर उसकी ओर देखा
वह एक झूमर था.
मैंने कुर्सी पर चढ़कर उसमें बल्ब लगा दिया.

टिप्पणियाँ

कविता अच्छी है यार!
मुझे पसंद आई.

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