आन्या


विदा

सवेरे
3 बजे
निकल पड़ी वह
मैंने देखा उसे
उसके पीछे मैं भी चल दिया
मैं चल तो दिया
पर उसके साथ जा नहीं सकता था
ना उसे रोक सकता था
उसे तो अब जाना ही था
बहुत सह लिया था उसने
पागलपन मेरा
पागलपन भरपूर
पागलपन परिपूर्ण
प्रेम सा मोहताज नहीं, अधूरा नहीं
पानी में छप छप करती
उस पार निकल गई वह
वहीँ कुछ लोटे पानी से नहाई
चांदनी में नहाई
और कपडे बदल कर चली गई
पीछे छोड़ गई एक रिक्तता
जिसके चारों ओर फेंस डाले मैं आज भी खड़ा हूँ
और देखता हूँ उस रिक्तता को फलते फूलते
सबकुछ अपने में समेटते।

जोंक

सिकुड़ा हुआ
अपनी चिकनी त्वचा से
अपने नाखून छुपाए
नाक फुलाए.
प्रतीक्षा
रक्त से उठती
गंध की,
पास आए कोई
तो गिर जाऊँ, चिपक जाऊँ.
तुम
काले शहद सी
चक्रवात के केंद्र सी,
अनभिज्ञ
अपने आकर्षण से,
दूर रहती सदा,
भय नहीं
घृणा नहीं,
किंतु
असमर्थता
समझने की मुझे.
यहाँ
सोच में अपनी
प्रतिशोध लेता हुआ
तुमसे,
पकड़े हुए
सहलाते हुए
अपने हाथों से,
प्रतीक्षा
तुम्हारे कमल से उठती
गंध की.

गंध

पार्किंग लाट से सटा
वह एक कमरा,
चारों ओर से घूरते
तुम्हारे आत्म चित्र,
सफ़ेद सिगरेट के धुंए में घुली
डिटर्जेंट की गंध,
उस दिन ले आया था
एक बोतल भर धूप वहां -
तिलमिला उठी थीं तुम.

गलत समय चुन लिया था मैंने,
जब लाल आँखों वाले राक्षस
दूर भगा देते हैं निद्रा देवी को,
जब एक तलवार अलग कर देती है
विचारों के गोलार्द्ध को
वस्तुओं के गोलार्द्ध से,
जब दोनों आँखें मिलकर
किनारे तोड़ देती हैं,
पर्दों से ढके तुम्हारे उस कमरे में
फिर न आने दिया कभी.

आन्या,
इतना तो बता दो
कि अब कैसी गंध है?

तेरे कैनवस दे उत्ते

आन्या,
याद है तुम्हें वह दिन
जब अमृताजी को सुनते हुए
कहा था तुमसे-
मैं भी उतर आऊंगा एक दिन - कई वर्षों बाद -
तुम्हारे कैनवस पर,
और तुम बोल उठी थी
ले जाएगा तुम्हारा ब्रश हमें
सोने के दो कंगन
और बारिश की कुछ बूंदों के पास.

आन्या,
कुछ ही दिनों में
खो गई तुम अपनी ज़िन्दगी में
छूट गया ब्रश
धूल जम गई कैनवस पर
ऐसे सूख गए शीशियों में भरे रंग
अब बस खरोंच सकती है उन्हें
तुम्हारी उँगलियाँ.

आन्या,
रुई-से सपनों और अधबुने रिश्तों के बीच
आज भी इंतज़ार हैं मुझे
रहस्यमयी लकीर बन
तुम्हें तकने का.

जाने नहीं दूँगा!

चलने से पहले
नंबर दिया तुमने
कहा - चालू हो जाएगा
न्यूयार्क पहुँचने पर.
मैं सोचता रह गया - क्यों?
कई बरस हुए
तुम्हें गए हुए - तुम भी जानती हो,
और रहा नहीं कुछ
बात करने को, तब से.

याद होगा तुम्हें
एक मेल आईड़ी बनाया था
सिर्फ मेरे लिए - nouvelle
पर कुछ रहा नहीं अब
तुम्हें बताने को
सिवाय इसके कि तुम जा चुकी हो,
पर यह तो तुम भी जानती हो,
शायद मैं कुछ ज्यादा जानता हूँ -
तो क्यों न तुम्हें बताऊँ?
बड़ा मुश्किल है यह
मैं कोई कवि भी नहीं.

प्रो. सोंधी ने कहा था एक बार - जब कोई देख नहीं रहा होता,
या जब मैं ऐसा सोचता हूँ,
काँच -सा बन जाता है मेरा चेहरा -
और सारी उथल-पुथल साफ़ दीख पड़ती है,
मुझे लगता है - बगूलों जैसी,
बगूले - अलग अलग रंग के
एक दूसरे से टकराते.

उतारना चाहता हूँ उन्हें
एक कागज़ पर,
एक चिट्ठी - ग्लिफों से भरी
जो बिना शब्दों के कह दे - तुम जा चुकी हो.

शुरुआत में

एक सुबह
गुलाबी एक पुलिंदा लिए
वह आई.
मुझे दिखाया उसने
कहा हमारा हैं,
पर मुझे कुछ याद न था,
उसने कहा तुम जैसी नाक है,
आखें हैं,
पर मुझे नहीं दिखीं.
उसने कहा कुछ देर में याद आजेगा.
यहीं रहने दो.

कुछ देर में
मुझे भूख लग आई.

और पहले

पहले मिश्मी ठीक लगती थी,
फिर इतनी बुरी के झूठ तक कहने से चूकी नहीं आप.

पहले सोफ़िया ठीक लगती थी
फिर बुरी लगाने लगी
फिर जब आन्या दिखी, तो सोफ़िया सही हो गई
ग़लतफ़हमी जो मिट गई थी.

और वह इतनी बुरी लगी
कि अचानक कह दिया –
ये मेरे dining table पर नहीं बैठेगी, बस!

अब तो खुश हो? सब अपने ही बैठते है न अब!

डिप

नीली रौशनी से भरे कमरे में
बैठा हूँ मैं,
और तुम भी
किसी गहरे कमरे में
खुद को छुपाए बैठी हो.

ठीक हैं
यहीं बैठ कर
पान थूकते हैं,
इन दीवारों पर.
देर तक.
दूर तक,
और दूर तक...

ठीक हैं.
यहीं बैठ कर
कुछ कांच फोड़ते हैं
छन
छन
छन.

कांच के टुकडों पर
घूमेंगे थोडा,
नीली दीवारों के बीच.

ठीक हैं.
यहीं बैठ कर
रिसते हैं, मौत तक
टप
टप
टप.

मल

एक घोडा
तालाब के किनारे उगे
एक बूढ़े पेड़ के नीचे पड़ा था,
मैं नहीं जानता वह कौन सा पेड़ था।

उसकी गर्दन पर भिनभिना रहे थे
कुछ कीड़े, काले बिन्दुओं जैसे
मैंने छू कर देखा, सूंघ कर भी देखा
उसका पिलपिला खून ठीक वैसा ही था जैसा मेरी पट्टियों से झाँक रहा था।

मैं उसके साथ ही लेट गया
एक बांह उसपर टिकाए
कुछ देर में उस लाश ने

त्याग दिया।

टिप्पणियाँ

Arun sathi ने कहा…
बहुत ही बेहतरीन सभी के सभी..
मन के आयामों को शब्दों में सुन्दरता से समेटती रचनायें।
भैये, कहीं कहीं एक तो कोई प्रसंग नितांत व्यक्तिगत लगता है - सम्प्रेषण बाधित होता है; दूसरे कुछ प्रतीक जटिल भी हैं.

फिर भी यदि आपको लगता है कि जिस पाठक के लिए आपने लिखा है, वह बिना कसरत के आपके प्रतिपाद्य को ग्रहण कर रहा है तो सब ठीक है.

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