संदेश

दिसंबर, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

चूहा

यहाँ, जहाँ मैं रहता हूँ, कुछ साधारण से अधिक मोटे चूहें हैं. दिन में तो कभी दिखाई नहीं पड़ते, पर रात को बरामदे में इधर से उधर भागते फिरते हैं. कभी उनमें से किसीके खोदने कि आवाज़ मुझे जगा सुनाई देती है, तो छोटे वाला बल्ब जला कर उसे देखने लगता हूँ. और उस लयबध खुदाई से मुझमें इतनी शिथिलता आ जाती है कि फिर उस बल्ब को बुझाता नहीं. रात जब वही आवाज आई, तो बल्ब जलाए बिना में बाहर निकला, चांदनी में मैंने देखा एक चूहा अपनी छोटे छोटे कटोरी जैसे पंजों से मेरे घर के नीचे खोद रहा है. सुबह कि पहली किरण के साथ ही वह भाग खड़ा होगा, उसका काम भी तब तक ख़तम नहीं होगा, शायद वह भी जानता है यह बात, पर फिरभी पूरी तन्मयता से खोद रहा है, पंजे का एक भी वार खाली नहीं जाता उसका, पर सुबह तक के सारे वार जोड़कर भी काम उसका ख़तम नहीं होगा. पंजों के बीच सर झुकाए वह लगा पड़ा था, और मेरे जूते के एक ही वार से काम तमाम हो गया. (Franz Kafka कि एक अधूरी कहानी है - memoirs of the Kalda Railroad, उसके एक छोटे से हिस्से को चोरी कर लिया है यहाँ.)

आविर्भाव

अँधेरा झाँक रहा था खिड़की से भीतर यों तो चाँद लगभग पूरा ही होगा पर बादलों में दबा पड़ा था आज. मैं खिड़की पर सिर टिकाए कुछ सोच रहा था के छत के कोनों में कुछ हलचल सी हुई, पलस्तर यों खिसकने लगा जैसे प्लास्टिक सिकुड़ता है आग देखकर, मैंने हाथ फैलाकर झड़ते पलस्तर का एक टुकड़ा थाम लिया. कोई आकृति-सी उभरने लगी फिर रंग उभरे, आकृति कि ओर से ध्यान खींचते. मैंने उठकर बत्ती बुझा दी, नीले रंग कि टेढ़ी मेढ़ी लाईनों के बीच सुनहरी-सिन्दूरी छटा खिलने लगी, और देखते ही देखते छत फट पड़ी. कोई उतर रहा था भीतर पंखों वाला कोई आवाज़ सुनाई नहीं देती – कोई भी नहीं, टाल रहा था मैं उसे मेरी पहचान का जो नहीं है वह पर आज तो वह मुझे कुछ कह कर ही रहेगा. छत फिर बंद हो गई, मैंने फिर उसकी ओर देखा वह एक झूमर था. मैंने कुर्सी पर चढ़कर उसमें बल्ब लगा दिया.

आन्या

विदा सवेरे 3 बजे निकल पड़ी वह मैंने देखा उसे उसके पीछे मैं भी चल दिया मैं चल तो दिया पर उसके साथ जा नहीं सकता था ना उसे रोक सकता था उसे तो अब जाना ही था बहुत सह लिया था उसने पागलपन मेरा पागलपन भरपूर पागलपन परिपूर्ण प्रेम सा मोहताज नहीं , अधूरा नहीं पानी में छप छप करती उस पार निकल गई वह वहीँ कुछ लोटे पानी से नहाई चांदनी में नहाई और कपडे बदल कर चली गई पीछे छोड़ गई एक रिक्तता जिसके चारों ओर फेंस डाले मैं आज भी खड़ा हूँ और देखता हूँ उस रिक्तता को फलते फूलते सबकुछ अपने में समेटते। जोंक सिकुड़ा हुआ अपनी चिकनी त्वचा से अपने नाखून छुपाए नाक फुलाए. प्रतीक्षा रक्त से उठती गंध की , पास आए कोई तो गिर जाऊँ , चिपक जाऊँ. तुम काले शहद सी चक्रवात के केंद्र सी , अनभिज्ञ अपने आकर्षण से , दूर रहती सदा , भय नहीं घृणा नहीं , किंतु असमर्थता समझने की मुझे. यहाँ सोच में अपनी प्रतिशोध लेता हुआ तुमसे , पकड़े हुए सहलाते हुए अपने हाथों से , प्रतीक्षा तुम्हारे कमल से उठती गंध की. गंध पार्किंग लाट से...