आवाजें

रात की सातवी सिगरेट के आखिरी पुल ने अभी बस धुआँ भरा ही था
कि सुनाई पड़ने लगीं कहीं दूर से आती वे आवाजें.
बारिश में दौड़ती लहरों के शोर में
वे आवाजें कुछ दब सी गई थीं.
दूर सड़क के किनारे लगे बल्ब तैरते दिख रहे 
कह रहे थे मुझसे सब मेरा भ्रम है बस.
 
कल रात फिर से आईं वे आवाजें, बड़ी दूर से
सूख गया मेरा मुँह, पर शायद सिगरेट के धुएँ से.
कुछ घंटे भर बाद, पास आने लगी वे आवाजें
अब तक तो एक ही लगी थी, पर अब लगा कई हैं
और सूरज उगने से पहले चुप भी हो गई.
 
कुछ था उन आवाजों में,
कुछ जो कह रहा था मुझे
चढ़ जाओ बालकनी में लगी वर्कबेंच पर
और उड़ चलो उनसे मिलने.
 
आज रात फिर आया उनका बुलावा,
और मैं भाग आया अपने कमरे में
बालकनी से दूर, बंद खिडकियों के बीच,
अब भी टकरा रहीं हैं वे आवाजें
खिडकियों के काँच से,
मैं बैठा हूँ, मुँह फेरे.

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