पंख, 
चमड़े के बने,
विशालकाय.
बस पंख ही दिख रहे थे
धुंए में छुपे
उस राक्षस के.
हलकी हवा चली
तो पंख और शरीर के बीच
कुछ फेफड़ों जैसी थैलियाँ दिखीं -
साँस ले रही थीं ये,
धुआं उगल रही थीं.
उसे घेरे खड़ी भीड़
अपनी आँखें दे रही थी उसे,
बड़ी गंभीर मुद्रा में -
लगभग कराहते  हुए -
वह निगल रहा था
एक बार में एक आँख.
हर आँख निगलते ही
उसकी शक्तियां बढ़ रही थीं,
काश मैं कह सकता -
वह बढ़ रहा था,
पर उसका आकार
उसकी इच्छा का गुलाम था.

कानों में मेरे
रुदन गूँज रहा था
बधियाकरण का - 
एनेस्थेटिस्ट के जन्म से पहले के.
पर उस भीड़ को
कुछ और ही सुन रहा था -
न मालूम क्या.

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