स्थायी भाव

हर सुबह
लौट जाती है मेरे दरवाज़े से
उँगलियों की छाप छोड़ 
धूप.

कभी पहले
आसन लगवाया था
पर अब वहां
बैठा है शोक.

अपने होठ टिका
खिंची हुई नसों पर
प्यास बुझाता है अपनी
मेरे रक्त से.
मैं 
बड़े प्यार से
पोसता हूँ उसे.

तृष्णा
मेरे हृदय में भी
तुम साथ रहो इसके
हर पल.
कभी खेलो इसके साथ,
कभी बतियाओ.
तुम्हें लगाए रखूँगा
माँ की तरह
अपने हृदय से.

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