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नवंबर, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ऊँचाई

मैंने अपनी ख़ुशी के लिए खुद का आविष्कार किया. वह सब किया जो उस पल करना चाहा. खुद को सबसे ऊंचा माना. पर एहसास हुआ धीरे-धीरे बेमतलब था यह सारा भटकाव. न मुझसे उभरा कोई मतलब न औरों को देने दिया. (ऊंचा जो था मैं!)

छोटा-सा आसमान

चित्र
कल प्रकाश में नहाए थे तुम, प्रकाश पर्व जो था. एक हारे हुए राष्ट्रपति के लिए कुछ लोगों ने खो दिया अधिकार चुन पाने का शोर करने और न करने के बीच. पर तुम्हें इससे क्या, तुम्हें तो मौका मिल गया कुछ और धुआं भरने का मेरे फेफड़ों में. आज सुबह मिलेगी पार्क में टहलने वालों को कुछ-एक पक्षियों के मृत शरीर. पर तुम्हें इससे क्या, तुम्हें उन बच्चों से भी क्या जिनके हाथों के बने पटाखे मिले हैं तुम्हें. इतना तो कमा ही लेते होंगे कि बचा सकें अपने पर. *चित्र: राजा रवि वर्मा

गुलाबी दुनिया

जीवंत यादें कुछ मृत सपनों की दौड़ रही हैं मेरे मस्तिष्क में. भटक रही हैं पवित्र आत्माएं मेरे सिर के भीतर. गूँज रही हैं उनकी अंतिम चीखें लाल दीवारों से टकराकर. टक्कर इतनी तेज़ फट जाते हैं बार बार अन्दर लगे पाइप.

तेरे कैनवस दे उत्ते

प्रिय अ, याद है तुम्हें वह दिन जब अमृताजी को सुनते हुए कहा था तुमसे- मैं भी उतर आऊंगा एक दिन - कई वर्षों बाद - तुम्हारे कैनवस पर, और तुम बोल उठी थी ले जाएगा तुम्हारा ब्रश हमें सोने के दो कंगन और बारिश की कुछ बूंदों के पास. प्रिय अ, कुछ ही दिनों में खो गई तुम अपनी ज़िन्दगी में छूट गया ब्रश धूल जम गई कैनवस पर ऐसे सूख गए शीशियों में भरे रंग अब बस खरोंच सकती है उन्हें तुम्हारी उँगलियाँ. प्रिय अ, रुई-से सपनों और अधबुने रिश्तों के बीच आज भी इंतज़ार हैं मुझे रहस्यमयी लकीर बन तुम्हें तकने का.