जड़ें

आज रात
तुम और मैं
उड़ चलेंगे दूर,
फिर कभी न देखेंगे
पीछे मुड़कर.
इस कल से
उड़ चलेंगे हम
बहुत दूर.
और तेज़
इतना तेज़

धुंधला जाएगा सब.
चाहे वे रोकें,
कुछ भी कहें
जला देंगे हम
सब रास्ते,
सब पुल.

...

एक पत्र-
घर
तुम्हारे बचपन का
बिकने वाला है अब.
इच्छा हो तो
आ कर देख लो
एक आखिरी बार.

...

छत पर बना
वह अकेला कमरा
आज भी है
वैसा ही,
सबसे ऊपर
और सबसे शांत,
सामने उसके
टंकी भी है
वही पुरानी-
कभी टुकड़ों में बँटा बाथरूम
(जो आज भी बँटा है, वहीँ नीचे)

नहीं मिलता था तो
यहीं नहाते थे हम.
सब है वैसा ही
बस कोई स्पर्श, कोई छुअन नहीं.

नीचे वही लाल ईटों का बरामदा है
और वही दरारें है,
खाटों पर बिछी
माँ की सुनाई कुछ यादें है,
पर मेरी अपनी कोई नहीं.

...

अर्थहीन ही है अब
बचपन का घर
वहाँ पला-बढ़ा बचपन,
खोया हुआ बचपन.

हाँ,
अब जो रहते हैं वहाँ
उनका बनाया डाक टिकटों का संकलन
बहुत प्यारा है,
और उनका गर्व
अपने संकलन पर-
बच्चों जैसा.

टिप्पणियाँ

nilesh mathur ने कहा…
आज आपकी कई रचनाएँ पढ़ी, अच्छा लगा!

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

तेरे कैनवस दे उत्ते

Fatal Familial Insomnia

विजय ऐसी छानिये...