यह वह ठिकाना नहीं

एक अँधेरे कोने में
अकेली बैठी रात
तराश रही है दिन.

सब दौड़ रहे हैं
और मैं भी,
तेज़-
तेज़ इतना
कि फट गई है
एक नस,
और आँख में उतर आई है एक बूँद
खून की.
सब रंग गया है गुलाबी.

पर दौड़ना है मुझे,
ज्यादा आसान है दौड़ते रहना
रुकने से,
और जानने से कि
चले गए हैं बाकी सब
कहीं और,
जानने से कि
यह वह ठिकाना नहीं
जहाँ सब मंगलमय हो.

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मनोरंजन

Fatal Familial Insomnia

वह जिसने कुछ खोया / कचरेवाला