हाथ के निशान

बाग़ था एक,
न, बाग़ नहीं था,
बस कुछ पौधे उग आए थे
बाहरी दीवार से बाहर,
कुछ छोटी-छोटी तितलियाँ उड़ आतीं कभी
कभी गिरगिट तो कभी गिलहरी भी दिख जाती,
बारिश में तो मेंढक भी दिखते.

और तुम
कभी-कभी रुककर
जाली लगी खिड़की पर
उस बाग़ को देखतीं.

जब बीमार हुईं
घंटों खिड़की के पास
अपनी ख़ास कुर्सी पर बैठ
देखती रहतीं.

फिर बिस्तर पकड़ लिया,
सोचा, कुछ सँवार दूँ बाग़ को,
उठकर जब देखोगी अच्छा लगेगा.
घंटों बिताए,
लगा, जितनी जल्दी हो जाएगा, उतनी ही जल्दी उठ पड़ोगी तुम.

पर
उठी नहीं तुम कभी.
सोचा कैसा लगता तुम्हें,
खिड़की से बाहर देखा,
कुछ नहीं था वहां,
थे बस मेरे हाथों के निशान,
लगा, देर से होता, तो शायद देर से उठतीं तुम.

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कभी कभी जल्दबाज़ी भी तो परेशानी और पशेमानी का सबब बन जाती है॥

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