मनोभ्रंश

घुला हुआ था अब तक
सवेरे में सपना,
और आँखों के सामने थीं
तुम्हारे पाँव की
गुलाबी अंगुलियाँ.

इच्छा उठी मुझमें
उन्हें खा लेने की,
तुम्हें खा लेने की,
अपने भीतर उतारने की,
लगा काश
तुम मुझमें उतर सकती,
समा सकती मुझमें.
जैसे मैं तुममें समा जाता हूँ.

सपना
अलग होने लगा सवेरे से,
ये विचार मेरे नहीं थे,
जाने किसने लिख दिए थे
मेरे मस्तिष्क पर,
रच रहा था कोई
मेरी त्वचा पर
नए अंग,
भर रहा था
मेरे रिकॉर्ड में
नई आवाजें.
बदल रहा था
मेरे नोटों का मूल्य,
मेरे सिक्कों का वजन.

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

तेरे कैनवस दे उत्ते

Fatal Familial Insomnia

विजय ऐसी छानिये...