गर्भ में

आम-सा दिन था
रोज़-सी हवा चल रही थी
हमेशा-सी पत्तों की आवाजें,
चलते-चलते अचानक
पेट फटने को हुआ
लेट गया वहीँ
लिपट कर
भ्रूण की तरह.

एक कुआँ
झाँकने लगा मुझ में,
आकाश से,
दर्द के मारे
ठिठुर रहा था मैं,
हिल नहीं पा रहा था.
वह कुआँ
खींचने लगा मुझे
अपनी ओर,
अपने गर्भ की ओर,
और उड़ चला मैं.

अँधेरा छाता रहा,
गर्माहट आती रही,
और मैं छुप गया
उस गर्भ में,
सुरक्षित
पूरी तरह से.

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