आईनाघर

आईनों से भरे इस कमरे में
खुशी तेज़ी से बढ़ती हैं,
हँसता हूँ, तो सब साथ हँसते हैं,
हमेशा कहते हैं - चिंता कैसी, हम हैं ना!

पर,
जब दुःख आता है,
जाता ही नहीं!
सब अपने में खोए से रहते हैं,
घुटते हुए से.

आईनों से भरे इस कमरे में
कोई मुझ-सा दिखता ही नहीं!

टिप्पणियाँ

कोई हम जैसा होता भी नहीं.
हमारा प्रतिबिम्ब तो आभासी होता है न!

सबके अपने-अपने दुःख हैं.
इसीलिये सब अकेले हैं
अपने-अपने दुःख में.
अकेलापन मेरे दुःख में दूसरे के शामिल होने से नहीं जाता.
जाता है दूसरे के दुःख में मेरे शामिल होने से.

नवनीत अपने ताप से पिघलता है,
दूसरे के दर्द में शामिल दिल तो
दूसरे के ताप से पिघल जाता है.

लगता है,
हमारे सिर पर भारी बोझा है - दुःख है.
पर हमसे पहले कितने ही चले गए
हमसे भारी बोझ लादे - सिर पर, कन्धों पर , पीठ पर.....
और मुस्कराते रहे.
हमारे पीछे भी हैं -
कराहने वालों के अलावा मुस्कराने वाले भी
जो मानते हैं -
''दुःख सबको माँजता है.''

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